Thursday, June 29, 2017

नासमझ

मैं नासमझ ही कितना भला था
जितना समझता जाता हूँ
उतना दूर होता जाता हूँ

ये फरेब ये मुखौटे ये झूठी चाहतें
ये दिल्लगी ये बेबसी को देख
खुद में ही सिमटता जाता हूँ

अपनेपन की तलाश लिए
अनजान लोगों की भीड़ में
खुद को तन्हा सा पाता हूँ

Sunday, June 11, 2017

दूरियां

खलती है तुम्हें मेरी दूरी मगर
ज़रूरी है कि दूरियां कायम रहें

तुम ऊँचे कुल के जन्मों को
भाता केवल स्वार्थ ही है
ममता की दुहाई देकर या
राखी की मर्यादा कहकर
छीन लेना समझते अधिकार हो

मैं ऊँचे कुल की जन्मा नहीं
तुम्हारे मन बहलाने का साधन नहीं
तुमसे कोई भी नाता जोड़कर
किसी और का अधिकार छीन लूँ
यह नीचता मुझे स्वीकार नहीं

उन स्त्रियों को ही हमेशा रहेंगे ,
यह नीचता से भरे संस्कार मुबारक,
जिनके हृदय में हैं पत्थर भरे,
पर यह पत्थर भी कभी तो टूटेंगे,
जब कर्म भुजंग बन लौटेंगे

तुम मन की सब कुछ कहते जाओगे,
पर गलत को गलत नही बताओगे,
माफ़ी की याचना ले जाओ किसी और द्वार,
बिना प्रायश्चित के कहीं नहीं मिलता,
माफ़ी मांगने का भी अधिकार

Friday, June 9, 2017

दरकार नहीं

तेरे इश्क की मुझे दरकार नहीं
आज मैं कहती हूं मुझे प्यार नहीं
कभी तूने खेला था मेरे अश्कों के साथ
आज मैं कहती हूं इनसे सरोकार नहीं

लौट जाओ उन्हीं राहों में
जहां तन्हा छोड़ तुम आगे बड़े थे
मुझे टूटता हुआ देख कर भी
तुम कहां वहां रुके थे