मैं पाषाण हूँ,
या पाषाण मानवता का प्रतिबिंब,
जुड़े थे जिससे सहज भाव,
जिसकी थी मैं अनुरक्ता,
एक निर्दोष अपराध ने,
बनाया उसने ही त्यक्ता,
समझा गया मुझे ना सहचरी ना अनुचरी,
मैं अहिल्या हूँ,
कहते है मैं श्रेष्ठ पतिव्रत का उदाहरण हूँ,
पंचकन्या में स्थान है मेरा,
विरंचि की आत्मजा भी है सम्मान मेरा,
श्रेष्ठ होने के लिए युगोंयुग पाषाण बनी हूँ,
धूप, पानी, पतझड़ सहे है,सभी समता से,
सम्मान के आभाव में,
अपमान को आत्मसाध किया है
अक्षम्य अपराध तो मेरे साथ हुआ,
फिर भी अपराधी बनी हूँ मैं,
छला गया है मुझे उपभोग की वस्तु बना,
शील भंग ने हरा मेरी गरिमा को,
स्वाभिमान पर प्रहार से विक्षत अस्तित्व हूँ मैं,
काम क्रोध के झांजावात में
करुणा का स्पर्श ना पा पथरा गयी हूँ मैं,
कहते है जब आएंगे राम,
तो लौट आएंगे मुझमें प्राण,
चरणरज से उनकी हो जाऊंगी निष्कलंका,
चेतनता का स्पंदन भूल जड़ हो जीना,
कलंक जो है मेरे जीवन पर,
सभ्यता के बोझ से मलीन हूँ मैं,
अन्यथा सर्वदा ही कुलीन हूँ मैं