Tuesday, June 19, 2018

मौन

शब्दों के आघात से उपजी पीड़ा,
चाहे कितनी हृदयविदारक हो,
उस पीड़ा समतुल्य नहीं फिर भी,
अनंत मौन जिसका कारक हो,

कहानियां आज भी जीवंत है उन सभाओं की,
लुटती लाज कुलवधु की, टूटती परम्पराओं की,
गलत वह नहीं जो कुकर्मी थे, विधर्मी थे,
गलत वह थे जो मर्यादा की ढ़ाल ले छिपते रहे

गलत नहीं थे राम जब तजी जानकी,
गलत थे वह लोग जो जड़वत रहे,
कह देते कि हे राम यह अन्याय है,
जिस तरह आक्षेप सती पर था किया

दीर्घकाल से कई सभ्यताओं को लीलता हुआ,
जब प्रयत्क्ष था सब कुछ, फिर भी चुपचाप रहा,
विकटतम चिरनिद्रा में जो हैं पड़े,
ऐसे सभ्य साधुजनों के संग कोई कैसे रहे

लुटता रहा कई बार आर्यावर्त,
कभी तुर्क, कभी मंगोल या मुग़ल,
कमज़ोर नहीं था बाजुओं में बाहुबल,
शिथिल पड़ा था कहने भर का संकल्प

थोड़े प्रयास में जग जाते है जो निद्रा में रहे,
उन्हें कैसे कोई जगाये जो निद्रा का आडम्बर रचे,
कुछ कहने से बात बढ़ेगी,
इस बात से डरकर कुछ ना कहे

स्पंदन संवेदना निशानी है जीवन की,
निष्ठुर बन नियति की आढ़ ले,
ज्ञान की पोथियाँ जो है बांचते,
जीये जाते मृतकों सा जीवन