Wednesday, December 12, 2018

यायावरी

मैं तटस्थ भाव से
देखती हूँ परिवर्तन
हिमीगिरि के शिखर पर
पिघलते तुहिन कण
जीवन की यायावरी में

बातों के बदलते मतलब
समझ से परे बेमतलब
शब्दों की बाजीगरी में
इस नीरव सी यायावरी में

स्वयं की निजता विसार
सारी प्रभुता के पार
फैला हुआ द्वन्द अपार
दिग्भ्रमित करती यायावरी में

कोलाहल मन का है
या कोतुहल क्षण भर का
सिमित दायरों में उलझे उत्तर
इस अनंत यायावरी में

कंक्रीट की बस्तियों में
ढूंढ़ते प्रकृति की गरिमा को
दिखते है कुछ सभ्य लोग
सिमटती हुई यायावरी में 

Thursday, September 13, 2018

तुमसे ही

जो तुमसे हुआ
वो मुकम्मल था
इसलिए दुबारा
दोहराया ना जा सका

अधूरे किरदार
पूरी कहानी कह गए
फिर क्या थी शिकायत
के अधूरे रह गए

बेसब्र घिरती घटाएं
बेहिसाब बरस गई
किसी ने क्या देखा
कहाँ बहा ले गयी

अजनबी शहरों में
दो हमसफर
भटके हुए मुसाफिर
मंज़िल तलाशती नज़र

Tuesday, June 19, 2018

मौन

शब्दों के आघात से उपजी पीड़ा,
चाहे कितनी हृदयविदारक हो,
उस पीड़ा समतुल्य नहीं फिर भी,
अनंत मौन जिसका कारक हो,

कहानियां आज भी जीवंत है उन सभाओं की,
लुटती लाज कुलवधु की, टूटती परम्पराओं की,
गलत वह नहीं जो कुकर्मी थे, विधर्मी थे,
गलत वह थे जो मर्यादा की ढ़ाल ले छिपते रहे

गलत नहीं थे राम जब तजी जानकी,
गलत थे वह लोग जो जड़वत रहे,
कह देते कि हे राम यह अन्याय है,
जिस तरह आक्षेप सती पर था किया

दीर्घकाल से कई सभ्यताओं को लीलता हुआ,
जब प्रयत्क्ष था सब कुछ, फिर भी चुपचाप रहा,
विकटतम चिरनिद्रा में जो हैं पड़े,
ऐसे सभ्य साधुजनों के संग कोई कैसे रहे

लुटता रहा कई बार आर्यावर्त,
कभी तुर्क, कभी मंगोल या मुग़ल,
कमज़ोर नहीं था बाजुओं में बाहुबल,
शिथिल पड़ा था कहने भर का संकल्प

थोड़े प्रयास में जग जाते है जो निद्रा में रहे,
उन्हें कैसे कोई जगाये जो निद्रा का आडम्बर रचे,
कुछ कहने से बात बढ़ेगी,
इस बात से डरकर कुछ ना कहे

स्पंदन संवेदना निशानी है जीवन की,
निष्ठुर बन नियति की आढ़ ले,
ज्ञान की पोथियाँ जो है बांचते,
जीये जाते मृतकों सा जीवन

Saturday, May 19, 2018

रवानगी

तम्मनाओं को बोझ बढ़ा
खुद को बदहवास कर दिया
ढूंढे से नहीं मिलती हैं खुशरंग बहारें,
उलझनों से वास्ता बना,
जिंदगी को उनका गुलाम कर दिया

जिंदगी एक खुशनुमा नदी सी
जो गुज़रती जाती है
ऊंची नीची तलहटियों से
चाहे कोई एक हमसफर की तलाश में
जो अपनाए उसे उसकी रवानगी के साथ

Wednesday, March 7, 2018

बूढ़ा बरगद

बूढ़ा बरगद सिमटता जा रहा है,
अब नई कोपलें नहीं फूटती,
पुरानी टहनियों पर नहीं ठहरते पत्र नए,
मगर आज भी अटल है,
मौसमों की बदलती चाल का तजुर्बा लिए,
आगंतुक को सहारा देने में सक्षम,

और शायद ऐसे ही होते है
एक उम्र के बाद पिता भी
उम्रदराज़, कुछ कमज़ोर,
मगर संबल देने में सर्वदा तैयार
जीवन की हर हताशा को दूर भगाने के लिए,
फिरसे जीतने का भरोसा दिलाने के लिए